शिव सूत्र प्रवचन 3 :ओशो
विस्मय योग की भूमिका है:शिव सूत्र प्रवचन 3 सूत्र 1
विस्मय का अर्थ शब्दकोश में दिया है—आश्चर्य; पर, आश्चर्य और विस्मय में एक बुनियादी भेद है। और वह भेद समझ में न आये तो अलग—अलग यात्राएं शुरू हो जाती है। आश्चर्य विज्ञान की भूमिका है, विस्मय योग की; आश्चर्य बहिर्मुखी है, विस्मय अंतर्मुखी; आश्चर्य दूसरे के संबंध में होता है, विस्मय स्वयं के संबंध में—स्व बात।
जिसे हम नहीं समझ पाते; जो हमें अवाक कर' जाता है; जिस पर हमारी बुद्धि की पकड़ नहीं बैठती; जो हमसे बड़ा सिद्ध होता है; जिसके सामने हम अनायास ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है; जो हमें मिटा जाता है—उससे विस्मय पैदा होता है। लेकिन, अगर यह जो विस्मय की दशा भीतर पैदा होती है—अतर्क्य, अचिंत्य के समक्ष खड़े होकर—इस धारा को हम बहिर्मुखी कर दें, तो विज्ञान पैदा होता है। सोचने लगें पदार्थ के संबंध में; विचार करने लगें जगत के संबंध में; खोज करने लगें रहस्य की, जो हमारे चारों ओर है—तो विज्ञान का जन्म होता है।
विज्ञान आश्चर्य है। आश्चर्य का अर्थ है—विस्मय बाहर की यात्रा पर निकल गया। और आश्चर्य और विस्मय में यह भी फर्क है कि जिस चीज के प्रति हम आश्चर्यचकित होते है, हम आज नहीं कल उस आश्चर्य से परेशान हो जायेंगे; आश्चर्य से तनाव पैदा होगा। इसलिए आश्चर्य को मिटाने की कोशिश होती है।
विज्ञान आश्चर्य से पैदा होता है, फिर आश्चर्य को नष्ट करता है; व्याख्या खोजता है, सिद्धांत खोजता है, सूत्र चाबियां खोजता है और तब तक चैन नहीं लेता जब तक कि रहस्य मिट न जाये; जब तक कि ज्ञान हाथ में न आ जाये; जब तक विज्ञान यह न कह सके कि हमने समझ लिया—तब तक चैन नहीं।
विज्ञान जगत से आश्चर्य को मिटाने में लगा है। अगर विज्ञान सफल हुआ तो दुनिया में ऐसी कोई चीज न रह जा............................
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स्वयं में स्थिति ही शक्ति है: शिव सूत्र प्रवचन 3 सूत्र 2
दूसरा सूत्र है स्व में स्थिति शक्ति है। जैसे ही विस्मय पैदा हो, भीतर की तरफ चलना, डूबना और स्व में स्थित हो जाने की चेष्टा करना। क्योंकि जब तुम पूछते हो— 'मैं कौन हूं, तो कब तुम्हें उत्तर मिलेगा। अगर इसका उत्तर तुम्हें चाहिए तो भीतर स्व में ठहरना पड़ेगा। उसको ही हमने स्वास्थ्य कहा है—स्वयं में ठहर जाना। और, जब कोई व्यक्ति स्वयं में ठहर जायेगा, तभी तो देख पाएगा; दौड़ते हुए तुम कैसे देख पाओगे?
तुम्हारी हालत ऐसी है कि तुम एक तेज रफ्तार की कार में जा रहे हो। एक फूल तुम्हें खिड़की से दिखायी पड़ता है। तुम पूछ भी नहीं पाते कि यह क्या है कि तुम आगे निकल गये। तुम्हारी रफ्तार तेज है और वासना से तेज रफ्तार दुनिया में किसी और यान की नहीं। चांद पर पहुंचना हो, राकेट भी वक्त लेता है; तुम्हारी वासना को इतना भी वक्त नहीं लगता, इसी क्षण तुम पहुंच जाते हो। वासना तेज से तेज गति है। और, जो वासना से भरा है, उसका अर्थ है कि वह गहरा हुआ नहीं है; भाग रहा है, दौड़ रहा है। और, तुम इतनी दौड़ में हो कि तुम पूछो भी कि 'मैं कौन हूं,, तो उत्तर कैसे आयेगा?
यह दौड़ छोड़नी होगी। स्व में स्थित होना होगा। थोड़ी देर के लिए सारी वासना, सारी दौड़, सारी यात्रा बंद कर देनी होगी। लेकिन, एक वासना समाप्त नहीं हो पाती कि तुम पच्चीस को जन्म दे लेते हो; एक यात्रा पूरी नहीं हो पाती कि पच्चीस नये रास्ते खुल जाते हैं और तुम फिर दौड़ने लगते हो। तुम्हें बैठना आता ही नहीं। तुम रुके ही नहीं हो जन्मों से।
मैंने सुना है कि एक सम्राट ने एक बहुत बुद्धिमान आदमी को वजीर रखा। लेकिन वजीर बेईमान था और उसने जल्दी ही साम्राज्य के खजाने से लाखों—करोड़ों रुपये उड़ा दिये। जिस दिन सम्राट को पता चला, उसने वजीर को बुलाया और उसने कहा कि मुझे कहना नहीं है। जो तुमने किया है, वह ठीक नहीं और ज्यादा मैं कुछ कहूंगा नहीं। तुमने भरोसे को तोड़ा है। बस, इतना ही कहता हूं
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वितर्क अर्थात विवेक आत्मज्ञान का साधन है: शिव सूत्र प्रवचन 3 सूत्र 3
तीसरा सूत्र है: वितर्क अर्थात विवेक से आत्मज्ञान होता है। एक—एक सूत्र कुंजी की तरह है। पहला—विस्मय, विस्मय मोड़ेगा स्वयं की तरफ; दूसरा—स्वयं में ठहरना, ताकि तुम महाऊर्जा को उपलब्ध हो जाओ। लेकिन, कैसे तुम स्वयं में ठहरोगे, उसकी कुंजी तीसरे सूत्र में है—विवेक, वितर्क आत्मज्ञानम्।
यह 'वितर्क' शब्द समझ लेने जैसा है। तर्क तो हम जानते हैं। तर्क विज्ञान के हाथ है। वह आश्चर्य को काटने की तलवार है। तर्क काटता है, विश्लेषण करता है। तर्क बाहर जाता है, वितर्क भीतर जाता है। वह काटता नहीं, जोड़ता है। तर्क विश्लेषण है—एनालिसिस वितर्क संश्लेषण है—सिंथीसिस।
फरीद हुआ एक फकीर। एक भक्त उसके पास एक सोने की कैंची ले आया; बड़ी बहूमूल्य थी, हीरे—जवाहरात लगे थे। और उसने कहा कि मेरे परिवार में चली आ रही है सदियों से। करोड़ों का दाम है इसका। मैं इसका क्या करूं? आपके चरणों में रख जाता हूं।
फरीद ने कहा, 'तू इसे वापस ले जा। अगर तुझे कुछ भेंट ही करना हो तो एक सुई—डोरा ले आना। क्योंकि हम तोड़नेवाले नहीं, जोड़नेवाले है। कैंची काटती है। अगर भेंट ही करना हो, तो एक सुई—डोरा ले आना।’ तर्क कैंची की तरह है, काटता है। हिंदुओं में गणेश तर्क के देवता हैं, इसलिए चूहे पर बैठे हैं। चूहा यानी कैची। वह काटता है। चूहा जीवित कैंची है। वह काटता ही रहता है। गणेश उस पर बैठे हैं। वे तर्क के देवता हैं। और हिंदुओं ने खूब मजाक किया गणेश का। उन्हें देखकर अगर तुम्हें हंसी न आये तो हैरानी की बात है। आती नहीं है तुम्हें; क्योंकि तुम उनसे भी आश्वस्त हो गये हो कि वे ऐसे हैं। अन्यथा वे हंसी—योग्य है।
गणेश के शरीर को ठीक से देखो तो सब ढंग से बेढंगा है। सिर भी अपना नहीं है, वह भी उधार है। तार्किक के पास सिर उधार होता है। बहुत बड़ा है, हाथी का है; लेकिन अपना नहीं है। उधार सिर हाथी का भी हो तो भी किसी का नहीं; काम वह सिर्फ कुरूप करेगा। भारी— भरकम शरीर है। चूहे पर सवार है। यह भारी—भरकम शरीर देखने का ही है। सवारी तो चूहे की है। कितना ही बड़ा पंडित हो, लेकिन सवारी चूहे की ही है—वह कैंची, तर्क। फरीद ने ठीक कहा कि। ............................................................
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चौथा सूत्र है—लोकानद समाधिसुखमू—अस्तित्व का आनंद भोगना समाधि—सुख है। और, जब तुम स्वयं में पहुंच गये, ठहर गये तो तुम अस्तित्व की गहनतम स्थिति में आ गये। वहां सघनतम अस्तित्व है; क्योंकि वहीं से सब पैदा हो रहा है। तुम्हारा केंद्र तुम्हारा ही केंद्र नहीं है, सारे लोक का केंद्र है।
हम परिधि पर ही अलग—अलग है। मैं और तू का फासला शरीरों का फासला है। जैसे ही हम शरीर को छोड़ते और भीतर हटते है, वैसे—वैसे फासले कम होने लगते हैं। जिस दिन तुम आत्मा को जानोगे, उसी दिन तुमने परमात्मा को भी जान लिया। जिस दिन तुमने अपनी आत्मा जानी उसी दिन तुमने समस्त की आत्मा जान ली; क्योंकि वहां केंद्र पर कोई फासला नहीं। परिधि पर हममें भेद हैं। वहां भिन्नताएं हैं। केंद्र में हममें कोई भेद नहीं। वहां हम सब एक अस्तित्वरूप हैं।
शिव कहते हैं: उस अस्तित्व को स्वयं में पाकर समाधि का सुख उपलब्ध होता है।
समाधिसुखम्—इस शब्द को समझ लेना जरूरी है। तुमने बहुत—से सुख जाने हैं—कभी भोजन का सुख, कभी स्वास्थ्य का सुख, कभी प्यास लगी तो जल से तृप्ति का सुख, कभी शरीर—भोग का सुख, संभोग का सुख—तुमने बहुत सुख जाने हैं। लेकिन, इन सुखों के संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है और वह यह कि इन सुखों के साथ दुख जुड़ा हुआ है। अगर तुम्हें प्यास न लगे, तो पानी पीने की तृप्ति भी न होगी। प्यास की पीड़ा को तुम झेलने को राजी हो, तो पानी पीने का मजा तुम्हें आयेगा। दुख पहले है, और दुख लंबा है और सुख क्षणभर है; क्योंकि जैसे ही कंठ से पानी उतरा, तृप्ति हो गयी। फिर भूख, फिर प्यास! भूख न लगे, भूख की पीड़ा न हो तो भोजन की कोई तृप्ति नहीं।
इसलिए, दूनियां में एक बड़ी दुर्घटना घटती है—जिनके पास भूख है, उनके पास भोजन नहीं; वे भोजन का मजा ले सकते थे; उन्हें भोजन में सुख आता, क्योंकि वे बड़ा दुख
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